Monday, December 27, 2021

महर्षी श्रीपरशुरामजी द्वारा भगवान श्रीरामजीकी स्तुती ।

 



हे राम ! आप वही विष्णु हैं । ब्रह्माकी प्रार्थनासे आपने जन्म लिया है। आपका जो तेज मुझमें स्थित था वह आज आपने फिर ले लिया ॥ २९ ॥

 श्रीभगवान् बोले-हे ब्रह्मन् ! तपस्या छाट | खडे हो, तुम्हारा महान् तप सफल हो गया ! तम हो चिदंशसे युक्त होकर, जिसके लिये यह तपस्या करनेकाकष्ट उठाया है उस पितृघाती हैहयश्रेष्ठ कार्तवीर्यका वध | करो और फिर इक्कीस बार समस्त क्षत्रियोंको मारकर ॥ २४-२५॥ सम्पूर्ण पृथिवी कश्यपजीको दे शान्ति लाभ करो। मैं अविनाशी परमात्मा त्रेतायुगमें दशरथके यहाँ 'राम' नामसे जन्म लूँगा। उस समय मेरी परमशक्ति (सीता) के सहित तुम मुझे देखोगे। तब (पहले) इस समय तुम्हें दिया हुआ अपना तेज मैं फिर | ग्रहण कर लूँगा ॥ २६-२७ ॥ तबसे तुम तपस्या करते हुए कल्पान्तपर्यन्त पृथिवीमें रहोगे। ऐसा कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये; और मैंने जैसा उन्होंने कहा था वैसा ही किया ॥ २८ ॥

हे प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हो गया जो मैंने आपको पहचान लिया; आप तो ब्रह्मा आदिसे भी अप्राप्य और प्रकृतिसे भी परे माने गये हैं ॥ ३० ॥ आपमें अज्ञानजन्य जन्मादि छः भाव विकार नही है तथा आप गमनादिसे रहित निर्विकार  ओर पुर्ण है ।31।

अहो जलके  फेन समुह और अग्नीके धुएके समान आपके आयित और आपके विषय करनेवाली माया नान प्रकारके विचीत्र कार्योंकी रचना करती है ।32। मनुष्य जबतक मायासे आवृत्त रहते है तब तक आपको जान नही सकते । विद्याकी विरोधिनी यह अविद्या जबतक विचार नही किया जाता तब तक रहती है ।33। अविद्याजन्य देहादि संघातोंमें प्रतिबिम्बित हुई चित्-शक्ति ही इस जीव-लोकमें 'जीव' कहलाती है ॥ ३४ ॥ यह जीव जबतक देह, मन, प्राण और बुद्धि आदिमें अभिमान करता है तभीतक कर्तृत्व, भोक्तृत्व और सुख-दुःखादिको भोगता है॥ ३५॥ वास्तवमें आत्मामें जन्म-मरणादि संसार किसी भी अवस्थामें नहीं है और बुद्धिमें कभी ज्ञानशक्ति नहीं है। अविवेकसे इन दोनोंको मिलाकर जीव 'संसारी हूँ' ऐसा मानकर कर्ममें प्रवृत्त हो जाता है । ३६ ॥ जल और अग्निका मेल होनेसे जैसे जलमें उष्णता और अग्निमें शान्तता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार जड (बुद्धि) का चेतन (आत्मा) से संयोग होनेसे उसमें चेतनता और चेतन आत्माका जड-बुद्धिसे संयोग होनेसे उसमें (कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि) जडता प्रकट हो जाती है ॥ ३७ ॥ हे राम ! जबतक मनुष्य आपके चरणकमलोंके भक्तोंका सङ्गसुख निरन्तर अनुभव नहीं करता तबतक संसारके दुःख-समूहसे पार नहीं होता ।। ३८ ॥ जब वह भक्तजनोंके सङ्गसे प्राप्त हुई भक्तिद्वारा आपकी उपासना करता है तब आपकी माया शनैः-शनैः चली जाती है और वह क्षीण होने लगती है ।। ३९ ।। फिर उस साधकको आपके ज्ञानसे सम्पन्न सद्गुरुकी प्राप्ति होती है और उन सद्गुरुदेवसे महावाक्यका बोध पाकर वह आपकी कृपासे मुक्त हो जाता है ॥ ४० ॥ अतः आपकी भक्तिसे शून्य पुरुषोंको सौ करोड़ कल्पोंमें भी मुक्ति अथवा ब्रह्मज्ञान प्राप्त होनेकी सम्भावना नहीं है और इसीलिये उन्हें वास्तविक सुख मिलनेकी भी सम्भावना नहीं है ।। ४१ ।। अतः मैं यही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मान्तरमें आपके चरण-युगलमें मेरी भक्ति हो और मुझे आपके भक्तोंका सङ्ग मिले; क्योंकि इन्हीं दोनों साधनोंसे अविद्याका नाश होता है ॥ ४२ ॥ संसारमें आपकी भक्तिमें तत्पर और भगवद्धर्मरूप अमृतकी वर्षा करनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण लोकको पवित्र कर देते हैं, फिर वे अपने कुलमें उत्पन्न हुए पुरुषोंको पवित्र कर देते हैं, इसमें तो कहना ही क्या है? ॥ ४३ ।। हे जगन्नाथ ! आपको नमस्कार है। हे भक्तिभावन ! आपको नमस्कार है। हे करुणामय ! हे अनन्त ! आपको नमस्कार है । हे रामचन्द्र ! आपको बारम्बार नमस्कार है ।। ४४ ।। हे देव ! मैंने पुण्यलोक-प्राप्तिके लिये जो कछ पुण्य कर्म किये हैं वे सब आपके इस बाणके लक्ष्य हों। हे राम! आपको नमस्कार है' ॥ ४५ ॥

तब करुणामय भगवान् श्रीरामचन्द्रने प्रसन्न होकर कहा-“हे ब्रह्मन् ! मैं प्रसन्न हूँ, तुम्हारे हृदयमें जो-जो कामनाएँ हैं उन सभीको मैं पूर्ण करूँगा, इसमें सन्देह न करना।" तब परशुरामजीने प्रसन्न-चित्त होकर रामसे कहा- || ४६-४७ ।।

हे मधुसूदन रान , मेरे उपर आपकी कृपा है तो मुझे सदा आपके भक्तोंका संग रहे और आपके चरणकमलोमे मेरी सुदृढ भक्ती हो ।48।

तथा कोई भक्तीहीन पुरुष भी इस स्तोत्रका पाठ करे तो उसे सर्वदा आपकी भक्ती मिले और ज्ञान प्राप्त हो और अन्तमे आपकी स्मृती रहे ।। ।49।

तदनन्तर रघुनाथजीके 'एैसाही हो' इस प्रकार कहनेपरपरशुरामजीने श्रीरामजीकी परिक्रमा कर उन्हे प्रणाम किया और उनसे पुजीत हो उनकी आज्ञासे महेन्द्र पर्वतपर चले गये।50।