Monday, December 27, 2021

महर्षी श्रीपरशुरामजी द्वारा भगवान श्रीरामजीकी स्तुती ।

 



हे राम ! आप वही विष्णु हैं । ब्रह्माकी प्रार्थनासे आपने जन्म लिया है। आपका जो तेज मुझमें स्थित था वह आज आपने फिर ले लिया ॥ २९ ॥

 श्रीभगवान् बोले-हे ब्रह्मन् ! तपस्या छाट | खडे हो, तुम्हारा महान् तप सफल हो गया ! तम हो चिदंशसे युक्त होकर, जिसके लिये यह तपस्या करनेकाकष्ट उठाया है उस पितृघाती हैहयश्रेष्ठ कार्तवीर्यका वध | करो और फिर इक्कीस बार समस्त क्षत्रियोंको मारकर ॥ २४-२५॥ सम्पूर्ण पृथिवी कश्यपजीको दे शान्ति लाभ करो। मैं अविनाशी परमात्मा त्रेतायुगमें दशरथके यहाँ 'राम' नामसे जन्म लूँगा। उस समय मेरी परमशक्ति (सीता) के सहित तुम मुझे देखोगे। तब (पहले) इस समय तुम्हें दिया हुआ अपना तेज मैं फिर | ग्रहण कर लूँगा ॥ २६-२७ ॥ तबसे तुम तपस्या करते हुए कल्पान्तपर्यन्त पृथिवीमें रहोगे। ऐसा कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये; और मैंने जैसा उन्होंने कहा था वैसा ही किया ॥ २८ ॥

हे प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हो गया जो मैंने आपको पहचान लिया; आप तो ब्रह्मा आदिसे भी अप्राप्य और प्रकृतिसे भी परे माने गये हैं ॥ ३० ॥ आपमें अज्ञानजन्य जन्मादि छः भाव विकार नही है तथा आप गमनादिसे रहित निर्विकार  ओर पुर्ण है ।31।

अहो जलके  फेन समुह और अग्नीके धुएके समान आपके आयित और आपके विषय करनेवाली माया नान प्रकारके विचीत्र कार्योंकी रचना करती है ।32। मनुष्य जबतक मायासे आवृत्त रहते है तब तक आपको जान नही सकते । विद्याकी विरोधिनी यह अविद्या जबतक विचार नही किया जाता तब तक रहती है ।33। अविद्याजन्य देहादि संघातोंमें प्रतिबिम्बित हुई चित्-शक्ति ही इस जीव-लोकमें 'जीव' कहलाती है ॥ ३४ ॥ यह जीव जबतक देह, मन, प्राण और बुद्धि आदिमें अभिमान करता है तभीतक कर्तृत्व, भोक्तृत्व और सुख-दुःखादिको भोगता है॥ ३५॥ वास्तवमें आत्मामें जन्म-मरणादि संसार किसी भी अवस्थामें नहीं है और बुद्धिमें कभी ज्ञानशक्ति नहीं है। अविवेकसे इन दोनोंको मिलाकर जीव 'संसारी हूँ' ऐसा मानकर कर्ममें प्रवृत्त हो जाता है । ३६ ॥ जल और अग्निका मेल होनेसे जैसे जलमें उष्णता और अग्निमें शान्तता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार जड (बुद्धि) का चेतन (आत्मा) से संयोग होनेसे उसमें चेतनता और चेतन आत्माका जड-बुद्धिसे संयोग होनेसे उसमें (कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि) जडता प्रकट हो जाती है ॥ ३७ ॥ हे राम ! जबतक मनुष्य आपके चरणकमलोंके भक्तोंका सङ्गसुख निरन्तर अनुभव नहीं करता तबतक संसारके दुःख-समूहसे पार नहीं होता ।। ३८ ॥ जब वह भक्तजनोंके सङ्गसे प्राप्त हुई भक्तिद्वारा आपकी उपासना करता है तब आपकी माया शनैः-शनैः चली जाती है और वह क्षीण होने लगती है ।। ३९ ।। फिर उस साधकको आपके ज्ञानसे सम्पन्न सद्गुरुकी प्राप्ति होती है और उन सद्गुरुदेवसे महावाक्यका बोध पाकर वह आपकी कृपासे मुक्त हो जाता है ॥ ४० ॥ अतः आपकी भक्तिसे शून्य पुरुषोंको सौ करोड़ कल्पोंमें भी मुक्ति अथवा ब्रह्मज्ञान प्राप्त होनेकी सम्भावना नहीं है और इसीलिये उन्हें वास्तविक सुख मिलनेकी भी सम्भावना नहीं है ।। ४१ ।। अतः मैं यही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मान्तरमें आपके चरण-युगलमें मेरी भक्ति हो और मुझे आपके भक्तोंका सङ्ग मिले; क्योंकि इन्हीं दोनों साधनोंसे अविद्याका नाश होता है ॥ ४२ ॥ संसारमें आपकी भक्तिमें तत्पर और भगवद्धर्मरूप अमृतकी वर्षा करनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण लोकको पवित्र कर देते हैं, फिर वे अपने कुलमें उत्पन्न हुए पुरुषोंको पवित्र कर देते हैं, इसमें तो कहना ही क्या है? ॥ ४३ ।। हे जगन्नाथ ! आपको नमस्कार है। हे भक्तिभावन ! आपको नमस्कार है। हे करुणामय ! हे अनन्त ! आपको नमस्कार है । हे रामचन्द्र ! आपको बारम्बार नमस्कार है ।। ४४ ।। हे देव ! मैंने पुण्यलोक-प्राप्तिके लिये जो कछ पुण्य कर्म किये हैं वे सब आपके इस बाणके लक्ष्य हों। हे राम! आपको नमस्कार है' ॥ ४५ ॥

तब करुणामय भगवान् श्रीरामचन्द्रने प्रसन्न होकर कहा-“हे ब्रह्मन् ! मैं प्रसन्न हूँ, तुम्हारे हृदयमें जो-जो कामनाएँ हैं उन सभीको मैं पूर्ण करूँगा, इसमें सन्देह न करना।" तब परशुरामजीने प्रसन्न-चित्त होकर रामसे कहा- || ४६-४७ ।।

हे मधुसूदन रान , मेरे उपर आपकी कृपा है तो मुझे सदा आपके भक्तोंका संग रहे और आपके चरणकमलोमे मेरी सुदृढ भक्ती हो ।48।

तथा कोई भक्तीहीन पुरुष भी इस स्तोत्रका पाठ करे तो उसे सर्वदा आपकी भक्ती मिले और ज्ञान प्राप्त हो और अन्तमे आपकी स्मृती रहे ।। ।49।

तदनन्तर रघुनाथजीके 'एैसाही हो' इस प्रकार कहनेपरपरशुरामजीने श्रीरामजीकी परिक्रमा कर उन्हे प्रणाम किया और उनसे पुजीत हो उनकी आज्ञासे महेन्द्र पर्वतपर चले गये।50।


Sunday, July 11, 2021

घोरसंकटनिवारण स्तोत्रम्

 

घोरसंकटनिवारण स्तोत्रम् 



 

श्रीपादश्रीवल्लभ त्वं सदैव

श्रीदत्तास्मानपाहि देवाधिदेव ।।।

भावग्राह्य क्लेशहारिन्सुकीर्ते

    घोरात्कष्टादुध्दरास्मानमस्ते   ।।1।।


त्वं नो माता त्वं पिताऽऽप्ताऽधिपस्त्वं

 त्राता योगक्षेमकृत्सद्गुरुस्त्वम् ।।

 त्वं सर्वस्वं नोऽप्रभो विश्वमूर्ते

 घोरात्कष्टादुध्दरास्मानमस्ते  ।।2।।


पापं तापं व्याधिमाधिं दैन्यं

 भीति क्लेशं त्वं हराऽशु त्वदन्यम् ।।

 त्रातारं नो वीक्ष ईशास्तजूते

घोरात्कष्टादुध्दरास्मानमस्ते   ।।3।। 


नान्यस्त्राता नापि दाता भर्ता |

त्वत्तो देवं त्वं शरण्योऽकहर्ता ।।

 कुर्वातत्रेयानुग्रहं पूर्णराते,

घोरात्कष्टादुध्दरास्मानमस्ते ।।4।।


धर्मे प्रीतिं सन्मतिं देवभक्तीम्

सत्संगाप्तिं देहि भुक्तिं मुक्तिं ।।

भावासक्तिं चााखिलानन्दमुर्ते

घोरात्कष्टादुध्दरास्मानमस्ते ।।5।।


।। श्लोक पंचकमे तद्यो लोकमंगलवर्धनम् ।।

 प्रपठे नियतो भक्त्या श्रीदत्तप्रियो भवेत ।।६।।





। भगवान श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।

 


Tuesday, January 26, 2021

श्रीव्यंकटेश स्तोत्र श्रीदेविदासकृत मराठी भाषामे

 


श्रीव्यंकटेशध्यानम्। 

श्रीवत्सं मणिकौस्तुभं च मुकुटं केयूरमुद्रांकितं । बिभ्राणं वरदं चतुर्भुजधरं पीतांबरोद्भासितं ॥ मेघश्यामतनुं प्रसन्नवदनं फुल्लारविंदेक्षणम् । ध्यायेत् व्यंकटनायकं हरिरमाधीशं सुरैर्वंदितं ॥ १॥ 

व्यंकटाद्रिसमं स्थानं ब्रह्मांडे नास्ति किंचन । व्यंकटेशसमो देवो न भूतो न भविष्यति ॥ २॥

मुरारी जगन्नाथ नारायणा हो । कृपासागरा अच्युता माधवा हो । मधुसूदना श्रीधरा भाग्यवंता । नमस्कार हा व्यंकटेशा समर्था ॥३॥

॥ ॐ तत्सत् श्रीसद्गुरु प्रसन्न ॥ 

कल्याणाद्भुतगात्राय, कामितार्थप्रदायिने ।

श्रीमद वेंकटनाथाय, श्रीनिवासाय ते नमः ॥

श्रीगणेशाय नमः॥ श्रीव्यंकटेशाय नमः ॥

 ॐ नमो जी हेरंबा । सकळादि तूं प्रारंभा। आठवूनि तुझी स्वरूपशोभा। वंदन भावें करितसें ॥१॥ नमन माझें हंसवाहिनी । वाग्वरदे विलासिनी। ग्रंथ वदावया निरूपणीं। भावार्थखाणी जयामाजी ॥२॥नमन माझें गुरुवर्या । प्रकाशरूपा तूं स्वामिया। स्फूर्ति द्यावी ग्रंथ वदावया। जेणें श्रोतयां सुख वाटे ॥३॥ नमन माझें संतसज्जनां । आणि योगियां मुनिजनां। सकळ श्रोतयां साधुजनां । नमन माझें साष्टांगीं ॥४॥ 

ग्रंथ ऐका प्रार्थनाशतक । महादोषांसी दाहक। तोपूनियां वैकुंठनायक । मनोरथ पूर्ण करील ॥५॥ जयजयाजी व्यंकटरमणा । दयासागरा परिपूर्णा । परंज्योति प्रकाशगहना। करितों प्रार्थना श्रवण कीजे ॥६॥ जननीपरी त्वां पाळिलें। पितयापरी त्वां सांभाळिलें। सकळ संकटांपासूनि रक्षिलें। पूर्ण दिधलें प्रेमसुख ॥७॥ हे अलोलिक जरी मानावें । तरी जग हे सृजिलें आघवें। जनकजननीपण स्वभावें। सहज आले अंगासी ॥८॥ दीननाथा प्रेमासाठी । भक्त रक्षिले संकटीं। प्रेम दिधलें अपूर्व गोष्टी। भजनासाठी भक्तांच्या ॥९॥आतां परिसावी विज्ञापना । कृपालुवा लक्ष्मीरमणा। मज घालोनि गर्भाधाना। अलोलिक रचना दाखविली ॥१०॥ तुज न जाणतां झालों कष्टी। आतां दृढ तुझे पायीं घातली मिठी।। कृपाळुवा जगजेठी। अपराध पोटी घाली माझे ॥११॥ माझिया अपराधांच्या राशी। भेदोनि गेल्या गगनासी। दयावंता हृषीकेशी। आपुल्या ब्रीदासी सत्य करीं ॥ १२॥पुत्राचे सहस्र अपराध । माता काय मानी तयांचा खेद। तेवीं तूं कृपाळू गोविंद । मायबाप मजलागीं ॥ १३॥ उडदांमाजी काळेंगोरें । काय निवडावें निवडणारें। कुचलिया वृक्षाची फळें । मधुर कोठोनि असतील ॥ १४ ॥अराटीलागी मृदुता । कोठोनि असेल कृपावंता। पाषाणासी गुल्मलता। कैशियापरी फुटतील ॥ १५॥ आपादमस्तकावरी अन्यायी। परी तुझे पदरी पडिलों पाहीं। आतां रक्षण नाना उपायीं। करणे तुज उचित ॥ १६॥ समर्थाचे घरींचे श्वान । त्यासि सर्वहि देती मान। तैसा तुझा म्हणवितों दीन । हा अपमान कवणाचा ॥१७॥ लक्ष्मी तुझे पायांतळीं । आम्ही भिक्षेसी घालोनि झोळी। येणे तुझी ब्रीदावळी । कैसी राहील गोविंदा ॥ १८॥ कुबेर तुझा भांडारी । आम्हां फिरविसी दारोदारी।। यांत पुरुषार्थ मुरारी। काय तुजला पैं आला ॥ १९॥ द्रौपदीसी वस्त्रे अनंता । देत होतासी भाग्यवंता। आम्हांलागी कृपणता। कोठोनि आणिली गोविंदा ॥२०॥ मावेची करूनि द्रौपदी सती। अन्ने पुरविली मध्यराती ।। ऋषीश्वरांच्या बैसल्या पंक्ती। तृप्त केल्या क्षणमात्रे॥२१॥ अन्नासाठी दाही दिशा । आम्हा फिरविसी जगदीशा। कृपाळुवा परमपुरुषा। करुणा कैशी तुज न ये ॥२२॥  अंगीकारियां शिरोमणी । तुज प्रार्थितों मधुर वचनीं। अंगीकार केलिया झणीं। मज हातींचें न सोडावें ॥२३॥ समुद्रे अंगीकारिला वडवानळ । तेणें अंतरी होतसे विह्वळ। ऐसें असोनि सर्वकाळ । अंतरी सांठविला तयाने ॥२४॥ कूर्मे पृथ्वीचा घेतला भार। तेणें सोडिला नाहीं बडिवार । एवढा ब्रह्मांडगोळ थोर । त्याचा अंगीकार पै केला ॥ २५॥ शंकरें धरिलें हाळाहळा। तेणें नीळवर्ण झाला गळा। परी त्यागलें नाहीं गोपाळा । भक्तवत्सला गोविंदा ॥ २६ ॥ माझ्या अपराधांच्या परी। वर्णितां शिणली वैखरी। । दुष्ट पतित दुराचारी। अधमाहूनि अधम ॥२७॥विषयासक्त मंदमति आळसी।कृपणकुव्यसनी मलिन मानसीं। । सदा सर्वकाळ सज्जनांशीं । द्रोह करीं सर्वदा ॥ २८॥ वचनोक्ति नाहीं मधुर । अत्यंत जनांसी निष्ठुर। सकळ पामरांमाजी पामर। व्यर्थ बडिवार जगीं काचे॥२९॥ काम क्रोध मद मत्सर । हे शरीर त्यांचे बिढार। कामनाकल्पनेसी थार । दृढ येथे केला असे ॥३०॥ अठरा भार वनस्पतींची लेखणी। समुद्र भरला मषीकरूनी।। माझे अवगुण लिहितां धरणीं । तरी लिहिले न जाती॥३१॥ ऐसा पतित मी खरा । परी तूं पतितपावन शार्ङ्गधरा। तुवां अंगीकार केलिया गदाधरा। कोण दोषगुणगणील॥३२॥ नीच रतली रायासीं । तिसी कोण म्हणेल दासी। लोह लागतां परिसासी। पूर्वस्थिति मग कैंची ॥३३॥ गांवींचें होतें लेंडवोहळ । गंगेसी मिळतां गंगाजळ। कागविष्ठेचे झाले पिंपळ । तयांसि निंद्य कोण म्हणे ॥३४॥ तैसा कुजाति मी अमंगळ । परी तुझा म्हणवितों केवळ । कन्या देऊनियां कुळ । मग काय विचारावें ॥३५॥ जाणत असतां अपराधी नर । तरी का केला अंगीकार। अंगीकारावरी अव्हेर । समर्थे न केला पाहिजे ॥३६॥ धांव पाव रे गोविंदा । हाती घेवोनियां गदा। करी माझ्या कर्मांचा चेंदा। सच्चिदानंदा श्रीहरी ॥ ३७॥ तुझिया नामाची अपरिमित शक्ती । तेथें माझी पापें किती।। कृपाळुवा लक्ष्मीपती । बरवें चित्तीं विचारी ॥ ३८॥ तुझें नाम पतितपावन । तुझें नाम कलिमलदहन। तुझें नाम भवतारण। संकटनाशन नाम तुझें ॥ ३९॥ आतां प्रार्थना ऐक कमळापति । तुझे नामी राहो माझी मति। हेचि मागतों पुढत पुढती। परंज्योति व्यंकटेशा ॥४०॥तूं अनंत तुझीं अनंत नामें । तयांमाजी अति सुगमें। ती मी अल्पमति प्रेमें । स्मरूनि प्रार्थना करीतसें॥४१॥ श्रीव्यंकटेशा वासुदेवा। प्रद्युम्ना अनंता केशवा । संकर्षणा श्रीधरा माधवा । नारायणा आदिमूर्ती ॥४२॥ पद्मनाभा दामोदरा । प्रकाशगहना परात्परा ।आदि अनादि विश्वंभरा। जगदुद्धारा जगदीशा ॥४३॥ कृष्णा विष्णो हृषीकेशा। अनिरुडा पुरुषोत्तमा परेशा। नृसिंह वामन भार्गवेशा । बौद्ध कलंकी निजमूर्ती ॥४४॥ अनाथरक्षका आदिपुरुषा । पूर्णब्रह्म सनातन निर्दोषा।। सकळ मंगळ मंगळाधीशा। सज्जनजीवना सुखमूर्ती ॥४५॥ शुद्ध सात्त्विका सुज्ञा । गुणप्राज्ञा परमेश्वरा ॥ ४६॥ श्रीनिधि श्रीवत्सलांछनधरा । भयकृद्भयनाशना गिरिधरा। दुष्टदैत्यसंहारकरा। वीरा मुखकरा तूं एक ॥४७॥ हे निखिल निरंजन निर्विकारा। विवेकखाणी वैरागरा। मधुमुरदैत्यसंहारकरा। असुरमर्दना उग्रमूर्ती ॥४८॥ शंखचक्रगदाधरा। गरुडवाहना भक्तप्रियकरा। गोपीमनरंजना सुखकरा । अखंडित स्वभावें ॥४९॥ हे नानानाटक-सूत्रधारिया । जगद्व्यापका जगद्वर्या ।कृपासमुद्रा करुणालया। मुनिजनध्येया मूळमूती ॥ ५० ॥ शेषशयना सार्वभौमा । वैकुंठवासिया निरुपमा। भक्तकेवारिया गुणधामा । पाव आम्हां ये समयीं ॥ ५१ ॥ ऐसी प्रार्थना करूनि देवीदास।अंतरीं आठविला श्रीव्यंकटेश। स्मरतां हृदयीं प्रगटला ईश। त्या सुखासी पार नाहीं ॥५२॥ हृदयीं आविर्भवली मूर्ती । त्या सुखाची अलोकिक स्थिती। आपुले आपण श्रीपति । वाचेहाती वदवीतसे ॥ ५३॥ ते स्वरूप अत्यंत सुंदर। श्रोतीं श्रवण कीजे सादर । सांवळी तनु सुकुमार । कुंकुमाकार पादपद्मे ॥५४॥ सुरेख सरळ अंगोळिका । नखें जैसी चंद्ररेखा। घोटीव सुनीळ अपूर्व देखा । इंद्रनीळाचियेपरी ॥५५॥ चरणी वाळे घागरिया । वांकी वरत्या गुजरिया। सरळ सुंदर पोटरिया । कर्दळीस्तंभाचियेपरी ॥५६॥ गुडघे मांडिया जानुस्थळ । कटितटी किंकिणी विशाळ। खालतें विश्वउत्पत्तिस्थळ । वरी झळाळी सोनसळा ॥५७॥ कटीवरतें नाभिस्थान । जेथोनि ब्रह्मा झाला उत्पन्न । उदरी त्रिवळी शोभे गहन । त्रैलोक्य संपूर्ण जयामाजी॥५८॥ वक्षःस्थळीं शोभे पदक । पाहोनि चंद्रमा अधोमुख । वैजयंती करी लखलख । विद्युल्लतेचियेपरी ॥ ५९॥ हृदयीं श्रीवत्सलांछन । भूषण मिरवी श्रीभगवान। तयावरतें कंठस्थान। जयासी मुनिजन अवलोकिती ॥६०॥ उभय बाहुदंड सरळ । नखें चंद्रापरीस तेजाळ । शोभती दोन्ही करकमळ । रातोत्पलाचियेपरी॥६१॥ मनगटी विराजती कंकणें । बाहुवटी बाहुभूषणें । कंठी लेइलीं आभरण। सूर्यकिरणे उगवलीं॥६२॥कंठावरुते मुखकमळ । हनुवटी अत्यंत सुनीळ। मुखचंद्रमा अति निर्मळ । भक्तस्नेहाळ गोविंदा ॥६३॥दोन्ही अधरांमाजी दंतपंक्ती। जिव्हा जैसी लावण्यज्योती। अधरामृतप्राप्तीची गती। तें सुख जाणे लक्ष्मी ॥६४॥ सरळ संदर नासिक । जेथें पवनासि झालें मुख। गंडस्थळींचें तेज अधिक। लखलखीत दोहीं भागी॥६५॥त्रिभुवनींचें तेज एकवटलें । बरवेंपण सिगेसि आलें। दोहीं पातयांनी धरिले। तेच नेत्र श्रीहरीचे ॥६६॥ व्यंकटा भृकुटिया सुनीळा । कर्णद्वयाची अभिनव लीळा । कुंडलांच्या फांकती किळा।तो सुखसोहळा अलोलिक॥६७॥ भाळ विशाळ सुरेख । वरती शोभे कस्तुरीटिळक। केश कुरळ अलोलिक । मस्तकावरी शोभती ॥६८॥ मस्तकीं मुकुट आणि किरीटी।सभोंवतीं झिळमिळ्यांचीदाटी। त्यावरी मयूरपिच्छांची वेटी। ऐसा जगजेठीदेखिला॥६९॥ ऐसा तूं देवाधिदेव । गुणातीत वासुदेव । माझिया भक्तीस्तव । सगुणरूप झालासी ॥७0॥  आतां करूं तुझी पूजा । जगज्जीवना अधोक्षजा। आर्ष भावार्थ हा माझा । तुज अर्पण केला असे ॥७१॥ करूनि पंचामृतस्नान । शुद्धामृत वरी घालून। तुज करूं मंगलस्नान । पुरुषसूक्तेकरूनियां ॥७२॥ वस्त्रे आणि यज्ञोपवीत । तुजलागीं करूं प्रीत्यर्थ। गंधाक्षता पुष्पें बहुत । तुजलागीं समयूं ॥७३॥ धूप दीप नैवेद्य । फल तांबूल दक्षिणा शुद्ध। वस्त्रे भूषणें गोमेद । पद्मरागादिकरूनि ॥७४॥ भक्तवत्सला गोविंदा । ही पूजा अंगीकारावी परमानंदा । नमस्कारूनि पादारविंदा। मग प्रदक्षिणा आरंभिली ॥७५॥ ऐसा षोडशोपचारें भगवंत । यथाविधि पूजिला हृदयांत । मग प्रार्थना आरंभिली बहुत । वरप्रसाद मागावया ॥७६ ॥ -जयजयाजीश्रुतिशास्त्रआगमा।जयजयाजीगुणातीत परब्रह्मा। जयजयाजी हृदयवासिया रामा। जगदुद्धारा जगद्गुरू ॥ ७७॥ जयजयाजी पंकजाक्षा । जयजयाजी कमळाधीशा। जय जयाजी पूर्णपरेशा । अव्यक्तव्यक्तासुखमूर्ती ।।78।। जयजयाजी भक्तरक्षका।जयजयाजी वैकुण्ठनायका ।जयजयाजी जगपालका ।भक्तांसी सखा तु एक ।। 79।। जयजयाजी निरंजना । जयजयाजी परात्परगहना। जयजयाजी शून्यातीतनिर्गुणा।परिसावीविज्ञापनाएकमाझी।।80।।मजलागी देई ऐसा वर । जेणें घडेल परोपकार ।मान हेचि मागणें साचार । वारंवार प्रार्थीतसे ॥८१॥ हा ग्रंथ जो पठण करी। त्यासी दुःख नसावें संसारी। पठणमात्रे चराचरी। विजयी करी जगातें ॥८२॥ लग्नार्थी याचे व्हावें लग्न। धनार्थी यासी व्हावें धन। पुत्रार्थी याचे मनोरथ पूर्ण । पुत्र देऊनि करावे ॥८३॥ पुत्र विजयी आणि पंडित । शतायुषी भाग्यवंत। पितृसेवेसी अत्यंत रत । जयाचे चित्त सर्वकाळ ॥८४॥उदार आणि सर्वज्ञ । पुत्र देई भक्तालागून । व्याधिष्ठांची पीडा हरण । तत्काळ कीजे गोविंदा ॥८५॥ क्षय अपस्मार कुष्ठादिरोग । ग्रंथपठणे सरावा भोग। योगाभ्यासियासी योग । पठणमात्रे साधावा ॥८६॥ दरिद्री व्हावा भाग्यवंत । शत्रूचा व्हावा निःपात। सभा व्हावी वश समस्त । ग्रंथपठणेकरूनियां ॥८७॥ विद्यार्थियासी विद्या व्हावी । युद्धी शस्त्रे न लागावी । पठणे जगांत कीर्ति व्हावी। साधु साधु म्हणोनियां ॥८८॥ अंती व्हावें मोक्षसाधन। ऐसें प्रार्थनेसी दीजे मन। एवढे मागतों वरदान । कृपानिधे गोविंदा ॥ ८९॥ प्रसन्न झाला व्यंकटरमण । देवीदासासी दिधलें वरदान। ग्रंथाक्षरी माझें वचन । यथार्थ जाण निश्चयेंसीं ॥९0॥ ग्रंथीं धरोनि विश्वास । पठण करील रात्रंदिवस । त्यालागी मी जगदीश । क्षण एक न विसंबे ॥९१॥इच्छा धरूनि करील पठण । त्याचे सांगतों मी प्रमाण । सर्व कामनेसी साधन । पठण एक मंडळ ॥९२॥ पुत्राथियाने तीन मास । धनार्थियाने एकवीस दिवस। कन्यार्थियाने षण्मास । ग्रंथ आदरें वाचावा ॥ ९३ ॥क्षय अपस्मार कुष्ठादिरोग । इत्यादि साधनें प्रयोग। त्यासी एक मंडळ सांग । पठणेकरूनि कार्यसिद्धी ॥ ९४॥ हे वाक्य माझें नेमस्त । ऐसें बोलिला श्रीभगवंत। साचन मानी जयाचें चित्तात्यासी अधःपात सत्य होय॥९५॥ विश्वास धरील ग्रंथपठणीं । त्यासी कृपा करील चक्रपाणी। वर दिधला कृपा करूनी। अनुभवें कळों येईल ॥ ९६ ॥ गजेंद्राचिया आकांतासी । कैसा पावला हृषीकेशी। प्रल्हादाचिया भावार्थासी। स्तंभांतूनि प्रगटला ॥९७॥ व्रजासाठी गोविंदा । गोवर्धन परमानंदा । उचलोनियां स्वानंदकंदा । सुखी केलें तये वेळीं ॥९८॥वत्साचेपरी भक्तांसी। मोहें पान्हावे धेनु जैसी। मातेच्या स्नेहतुलनेसी । त्याचपरी घडलेंसे ॥९९॥ ऐसा तू माझा दातार । भक्तासी घालिसी कृपेची पाखर। हा तयाचा निर्धार । अनाथनाथ नाम तुझें ॥१00॥ श्रीचैतन्यकृपा अलोलिक । संतोषोनि वैकुंठनायक। वर दिधला अलोलिक। जेणें सुख सकळांसी॥१०१॥ हा ग्रंथ लिहिता गोविंद । या वचनीं न धरावा भेद। हृदयीं वसे परमानंद अनुभवसिद्ध सकळांसी ॥१०२॥ या ग्रंथींचा इतिहास । भावें बोलिला विष्णुदास। आणिक न लगती सायास । पठणमात्रे कार्यसिद्धी॥१०३॥ पार्वतीस उपदेशी कैलासनायक । पूर्णानंद प्रेमसुख । त्याचा पार न जाणती ब्रह्मादिक। मुनी सरवर विस्मित ॥१०४॥ प्रत्यक्ष प्रगटेल वनमाळी । त्रैलोक्य भजत त्रिकाळीं। ध्याती योगी आणि चंद्रमौळी।शेषाद्रिपर्वती उभा असे॥105॥ देवीदास विनवी श्रोतयां चतुरां । प्रार्थनाशतक पठण करा। जावया मोक्षाचिया मंदिरा। कांहीं न लगती सायास॥१०६॥ एकाग्रचित्तें एकांतीं । अनुष्ठान कीजे मध्यरातीं। बैसोनियां स्वस्थचित्तीं। प्रत्यक्ष मूर्ति प्रगटेल ॥ १०७॥ तेथें देहभावासी नुरे ठाव । अवघा चतुर्भुज देव। त्याचे चरणी ठेवोनि भाव । वरप्रसाद मागावा ॥१०८॥ 

॥ इति श्रीदेवीदासविरचितं श्रीव्यंकटेशस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

॥श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥







Monday, July 6, 2020

Devi Khadga-mala Stotra


खड्गमाला  स्तोत्र 

 खड्गमाला प्रारभ्यते । 

जय माई जय मार्कण्ड माई ।

हेतवे जगतामेव संसारार्णवसेतवे। 
प्रभवे सर्वविद्यानां शिवाय गुरवे नमः॥ 

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं, श्रीं ह्रीं ऐं ॐ समयिनी मदिरानन्दसुंदरि समस्तसुरासुरवन्दिते ॥ जय माई
 
मदीयं शरीरं रक्ष रक्ष परमेश्वरि हुंफट् स्वाहा । 

ॐ भूः स्वाहा ॐ भुवः स्वाहा ॐ स्वः स्वाहा। ॐ भूर्भुव: स्व:स्वाहा। 

नरांत्रमालाभरणभूषिते महाकौलिनि महाब्रह्मवादिनि महाघनोन्मादकारिणि महाभोगप्रदे अस्मदीयं शरीरं वज्रमयं कुरु कुरु। दुर्जनान्हन हन महीपालान्क्षोभय क्षोभय चक्रं भंजय भंजय जयंकरि गगनगामिनि समलवरयूं रमलवरयूं यमलवरयूं भमलवरयूं श्रीभैरवी प्रसीद प्रसीद स्वाहा, जय माई, 

देवी रक्षतु दिव्यांगी दिव्यांगं भोगदायिनी। रक्ष रक्ष महादेवी शरीरं परमेश्वरी, जय माई.

ऐं ह्रीं श्रीं अरुणां करुणांतरंगिताक्षी धृतपाशांकुशबाणचापहस्ताम्, जय माई, 

ऐं ह्रीं श्रीं ॐ नमस्त्रिपुरसुन्दरी, जय माई, जय मार्कण्ड माई हृदयदेवि, शिरोदेवि, शिखादेवि, कवचदेवि, नेत्रदेवि, अस्त्रदेवि, जय माई.

 कामेश्वरी, भगमालिनि, नित्यक्लिन्ने, भेरुण्डे, वह्रिवासिनि,महावज्रेश्वरि, शिवदूति, त्वरिते, कुलसुन्दरि, नित्ये, नीलपताके, विजये, सर्वमंगले, ज्वालामालिनी, चित्रे, महानित्ये, जय माई 

परमेश्वरपरमेश्वरि मित्रेशमयि, षष्ठीशमयि, उड्डीशमयि चर्यानाथमयि, लोपामुद्रामयि, अगस्त्यमयि, कालतापनमयि, धर्माचार्यमयि, मुक्तकेशीश्वरमयि, दीपकलानाथमयि, विष्णुदेवमयि, प्रभाकरदेवमयि, तेजोदेवमयि, मनोजदेवमयि, कल्याणदेवमयि, रत्नदेवमयि, वासुदेवमयि, श्रीरामानन्दमयि, श्री माईमार्कण्डमयि जय माई. 

अणिमासिद्धे, लघिमासिद्धे, महिमासिद्धे, ईशित्वसिद्धे, वशित्वसिद्धे, प्राकाम्यसिद्धे, भुक्तिसिद्धे, ईच्छासिद्धे, प्राप्तिसिद्धे, सर्वकामसिद्धे, जय माई.

ब्राह्मि, माहेश्वरि, कौमारि, वैष्णवि, वाराहि, माहेन्द्रि, चामुण्डे, महालक्ष्मि, जय माई. सर्वसंक्षोभिणि, सर्वविद्राविणि, सर्वाकर्षिणि

सर्ववशंकरि, सर्वोन्मादिनि, सर्वमहांकुशे, सर्वखेचरि, सर्वबीजे, सर्वयोने, सर्वत्रिखण्डे, त्रैलोक्यमोहनचक्रस्वामिनि, प्रकटयोगिनि, जय माई. 

कामाकर्षिणि, बुद्धयाकर्षिणि, अहंकाराकर्षिणि, शब्दाकर्षिणि, स्पर्शाकर्षिणि, रूपाकर्षिणि, रसाकर्षिणि, गन्धाकर्षिणि, चित्ताकर्षिणि, धैर्याकर्षिणि, स्मृत्याकर्षिणि, नामाकर्षिणि, बीजाकर्षिणि, आत्माकर्षिणि, अमृताकर्षिणि, शरीराकर्षिणि, सर्वाशापरिपूरचक्रस्वामिनि, गुप्तयोगिनि, जय माई. 

अनंगकुसुमे, अनंगमेखले, अनंगमदने, अनंगमदनातुरे, अनंगरेखे, अनंगवेगिनि, अनंगांकुशे, अनंगमालिनि, सर्वसंक्षोभणचक्रस्वामिनि, गुप्ततरयोगिनि, जय माई. 

सर्वसंक्षोभिणि, सर्वविद्राविणि, सर्वाकर्षिणि, सर्वाहूलादिनि. सर्वसंमोहिनि, सर्वस्तंभिनि, सर्वजृभिणि, सर्ववशंकरि, सर्वरञ्जनि, सर्वोन्मादिनि, सर्वार्थसाधिनि, सर्वसंपत्पूरिणि, सर्वमंत्रमयि, सर्वद्वंद्वक्षयंकरि, सर्वसौभाग्यदायकचक्रस्वामिनि, संप्रदाययोगिनि, जय माई. 

सर्वसंपत्प्रदे, सर्वसिद्धिप्रदे, सर्वप्रियंकरि, सर्वमंगलकारिणि, सर्वकामप्रदे, सर्वदुःखविमोचिनि, सर्वमृत्युप्रशमनि, सर्वविघ्ननिवारिणि, सर्वांगसुंदरि, सर्वसौभाग्यदायिनि, सर्वार्थसाधकचक्रस्वामिनि, कुलोत्तीर्णयोगिनि, जय माई. 

सर्वज्ञे, सर्वशक्ते, सर्वैश्वर्यप्रदे, सर्वज्ञानमयि, सर्वव्याधिविनाशिनि, सर्वाधारस्वरूपे, सर्वपापहरे, सर्वानन्दमयि, सर्वरक्षास्वरूपिणि, सर्वेप्सितप्रदे, सर्वरक्षाकरचक्रस्वामिनि, निगर्भयोगिनि, जय माई. 

वशिनि, कामेश्वरि, मोदिनि, विमले, अरुणे, जयिनि, सर्वेश्वरि, कौलिनि, सर्वरोगहरचक्रस्वामिनि, रहस्ययोगिनि, जय माई. 

बाणिनि, चापिनि, पाशिनि, अंकुशिनि, महाकामेश्वरि, महावज्रेश्वरि, महाभगमालिनि, महाश्रीसुंदरि, सर्वसिद्धिप्रदचक्रस्वामिनि, अतिरहस्ययोगिनि, जय माई. श्रीमहाभट्टारिके, सर्वानन्दमयचक्रस्वामिनि, परापररहस्ययोगिनि, जय माई.

त्रिपुरे, त्रिपुरेशि, त्रिपुरसुन्दरि, त्रिपुरवासिनि, त्रिपुराश्रि, त्रिपुरमालिनि, त्रिपुरासिद्धे, त्रिपुरांबे, महात्रिपुरसुन्दरि, जय माई. 

महामहामहेश्वरि, महामहामहाराज्ञि, महामहाशक्ते, महामहागुप्ते, महामहाज्ञप्ते, महामहानन्दे, महामहास्पन्दे, महामहाशये, महामहासाम्राज्ञि, 
श्रीमाईनगरस्वामिनि,  नमस्ते, त्रिः स्वाहा: ॐ श्रीं ह्रीं ऐं, जय माई.

जय माई, जय मार्कण्ड माई 

Saturday, June 23, 2018

Shri Shiva Raksha Stotra

। श्रीगणेशाय नमः । श्रीसांबसदाशिवाय नमः । 







ॐ अस्य श्रीशिवरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य । याज्ञवल्कल्य ऋषिः । श्रीसदाशिवो देवता । अनुष्टप छंदः । श्रीसदाशिव प्रीत्यर्थे  शिवरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ।

चरितं देवदेवस्य महादेवस्य पावनम् । 
अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् । 1 ।

गौरीविनायकोपेतं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रकम् ।
शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नरः । 2 ।

गंगाधरः शिरः पातु भालमर्धेन्दुशेखरः । 
नयने मदनध्वंसी कर्णो सर्पविभूषणः । 3 ।

घ्राणं पातु पुरारातिर्मुखं पातु जगत्पतिः ।
जिव्हां वागीश्वरः पातु कंधरां शितिकंधरः । 4 । 

श्रीकंठः पातु मे कंठं स्कंधौ विश्वधुरंधरः । 
भुजौ भूभारसंहर्ता करौ पातु पिनाकधृक् । 5 । 

ह्रदयं शंकरः पातु जठरं गिरिजापतिः । 
नाभिं मृत्यंजयः पतु कटि व्याघ्रजिनांबरः । 6 ।

सक्थिनी पातु दीनार्तशरणागतवत्सलः ।
उरू महेश्वरः पातु जानुनी जगदीश्वरः । 7 । 

जंघे पातु जगत्कर्ता गुल्फौ पातु गणाधिपः ।
चरणौ करूणासिंधुः सर्वांगानि सदाशिवः । 8 । 

एतां शिवबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स भुक्त्वा सकलान् कामान् शिसायुज्यमापनुयात् । 9 । 

ग्रहभुतपिशाच्चाद्यास्त्रैलोक्ये विचरन्ति ये ।
दूरादाशु पलायन्ते शिवानमाभिरक्षणात् । 10 ।

अभयंकरनामेदं कवचं पार्वतीपतेः । 
भक्त्या बिभर्ति यः कंठे तस्य वश्यं जगत्त्रयम् । 11 । 

इमां नारायणः स्वप्ने शिवरक्षां यथा दिशत् ।
प्रातरूत्थाय योगीन्द्रोयाज्ञवल्क्यस्तथा लिखत्। 12 । 

इति श्रीयाज्ञवल्क्य प्रोक्तं  श्रीशिवरक्षां स्तोत्रं संपूर्णम् । 
                     




। ॐ श्रीसांबसदाशिवार्पणमस्तु । 

भगवान श्री शिवजीकी दश सहस्र ( 10,000 ) नामावली  देखनेकेलिये इस लिंकपर क्लीक या टॅप कीजिये - https://maiism.blogspot.com/2016/01/names-1-to-500-of-ten-thousands-names.html

Saturday, March 26, 2016

श्रीराम सहस्र नाम स्तोत्र Sri Ram Thousand Names Hymn

 Sri Ram's Thousand Names Hymn
श्रीराम सहस्र नाम स्तोत्र



स्तोत्रम्
राजीवलोचनः श्रीमान् श्रीरामो रघुपुंगवः ।
रामभद्रः सदाचारोराजेन्द्रो जानकीपतिः । 1 । 8

अग्रगण्यो वरेण्यश्च वरदः परमेश्वरः । 
जनार्दनो जितामित्रः परार्थेकप्रयोजनः । 2 । 15

विश्वामित्रप्रियो दान्तः  शत्रुजित शत्रुतापनः |
सर्वज्ञः सर्वदेवादिः शरण्यो वालिमर्दनः । 3 । 23

ज्ञानभाव्यो अपरिच्छेद्यो वाग्मी सत्यव्रतः शुचिः । 
ज्ञानगम्यो दृढप्रज्ञः खरध्वंसी  प्रतापवान । 4 ।  32   
          
द्युतिमत आत्मवान वीरो जितक्रोधो अरिमर्दनः । 
विश्वरूपो विशालाक्षः प्रभुः  परिवृढो दृढः । 5 । 42

ईशः खड्गधरः श्रीमान् कौसलेयो अनसूयकः ।
विपुलांसो महोरस्कः परमेष्ठी परायणः । 6 । 51

सत्यव्रतः सत्यसंधो गुरू परमधार्मिक ः । 
लोकज्ञो लोकवंद्यश्च लोकात्मा लोककृत परः । 7 । 60

अनादि भगवान सेव्यो जितमायो रघूद्वहः ।
रामो दयाकरो दक्षः सर्वज्ञः सर्वपावनः । 8 । 70

ब्रह्मण्यो नीतिमान गोप्ता सर्वदेवमयो हरिः । 
सुन्दरः पीतवासाश्च सूत्रकारः पुरातनः । 9 । 79

सौम्यो महर्षिः कोदण्डी सर्वज्ञः  सर्वकोविदः । 
कविः सुग्रीववरदः सर्वपुण्याधिकप्रदः । 10 । 87

भव्यो जितारिषड्वर्गो महोदरो अघनाशनः ।
सुकीर्ति आदिपुरूषः कान्तः पुण्यकृतागमः । 11 । 95

अकल्मष चतुर्बाहुः सर्वावासो दुरासदः ।
स्मितभाषी निवृत्तात्मा  स्मृतिमान् वीर्यवान् प्रभुः । 12 । 104

धीरो दान्तो घनश्यामः सर्वायुधविशारदः । 
अध्यात्मयोगनिलयः  सुमनः लक्ष्मणाग्रजः । 13 । 111

सर्वतीर्थमय शूरः  सर्वयज्ञफलप्रदः । 
यज्ञस्वरूपी यज्ञेशो जरामरणवर्जितः । 14 । 117

वर्णाश्रमकरो वर्णी शत्रुजित पुरूषोत्तमः ।
बिभीषणप्रतिष्ठाता परमात्मा परात्परः । 15 । 124

प्रमाणभूतो दुर्ज्ञेयः पूर्णः परपुरंजयः ।
अनन्तदृष्टी आनन्दो धनुर्वेदो धनुर्धरः । 16 । 132

गुणाकरो गुणश्रेष्ठः सच्चिदानंदविग्रहः ।
अभिवंद्यो महाकायो विश्वकर्मा विशारदः । 17 । 139

विनीतात्मा वीतराग तपस्वीशो जनेश्वरः ।
कल्याणप्रकृतिः कल्पः सर्वेशः सर्वकामदः । 18 । 147

अक्षयः पुरूषः साक्षी केशवः पुरूषोत्तमः ।
लोकाध्यक्षो महामायो बिभीषणवरप्रदः । 19 । 155

आनन्दविग्रहो ज्योर्ति हनुमत्प्रभु अव्ययः । 
भ्राजिष्णुः सहनो भोक्तः  सत्यवादि बहुश्रुतः । 20 । 164

सुखदः कारणं कर्ता भवबंधविमोचनः ।
देवचूडामणीनेता ब्रह्मण्यो ब्रह्मवर्धनः । 21 । 172

संसारोत्तारको रामः सर्वदुःखविमोक्षकृत् । 
विद्वत्तमो विश्वकर्ता विश्वहर्ता च विश्वकृत् । 22 । 179

नित्यो नियतकल्याणः सीताशोकविनाशकृत । 
काकुत्स्थः पुण्डरिकाक्षो विश्वामित्रभयापहः । 23 । 185

मारीचमथनो  रामो विराधपण्डितः ।
दुस्स्वप्ननाशनो रम्यः किरीटी त्रिदशाधिपः । 24 । 192

महाधर्नुमहाकायो भीमो भीमपराक्रमः । 
तत्वस्वरूपी तत्वज्ञ तत्ववादि सुविक्रमः । 25 । 200

भूतात्मा भुतकृत्  स्वामी कालज्ञानी महापटुः ।अनिर्विण्णो गुणग्राही निष्कलंकः कलंकघ्नः । 26 । 209

स्वभावभद्र शत्रुघ्नः केशवः स्थाणु ईश्वरः ।
भूतादि शम्भु आदित्यः स्थविष्ठ शाश्वतो ध्रुवः । 27 । 220

कवची कुण्डली चक्रीखड्गी भक्तजनप्रियः । 
अमृत्यु जन्मरहितः  सर्वजित सर्वगोचरः । 28 । 229

अनुत्तमो अप्रमेयात्मा सर्वादिगुणसागरः । 
समः समात्मा समगो जटामुकुटमण्डितः । 29 । 237

अजेयः सर्वभूतात्मा विष्वक्सेनो महातपः ।
लोकाध्यक्षो महाबाहु अमृतो वेदविदवित्तमः । 30 । 245

सहिष्णुः सद्गतिः शास्ता विश्वयोनि र्महाद्युतिः ।
अतीन्द्र उर्जितः प्रांशु उपेन्द्रो वामनो बली । 31 । 256

धनुर्वेदो विधाता च ब्रह्मा विष्णुश्च शंकरः । 
हंसो मरीचि गोविन्दो रत्नगर्भो महामतिः । 32 । 266

व्यासो वाचस्पतिः सर्वदर्पिता असुरमर्दनः । 
जानकीवल्लभः पूज्यः प्रकटः प्रीतिवर्धनः । 33 । 273

सम्भवो अतीन्द्रियो वेद्यो अनिर्देश्यो जाम्बवतप्रभुः । 
मदनो मथनो व्यापी विश्वरूपो निरंजनः । 34 । 283

नारायणो अग्रणी  साधु जटायुप्रीतिवर्धनः ।
नैकरूपो जगन्नाथः सुरकार्यहितः स्वभूः । 35 । 291

जितक्रोधो जितारातिः प्लवगाधिपराज्यदः । 
वसुदः सुभुजो नैकमायो भव्यप्रमोदनः । 36 । 298

चण्डांशुः सिध्दिदः  कल्पः शरणागतवत्सलः ।
अगदो रोगहर्ता मन्त्रज्ञो मन्त्रभावनः । 37 । 306

सौमित्रिवत्सलो धुर्यो व्यक्ताअव्यक्तस्वरूपधृक् ।
वसिष्ठो ग्रामणीः श्रीमान अनुकुलः प्रियंवदः । 38 । 314

अतुलः सात्वको धीरः शरासनविशारदः । 
ज्येष्ठः सर्वगुणोपेतः शक्तिमान  ताटाकान्तः । 39 । 322

वैकुंठः प्राणिनां प्राणः कमठः कमलापतिः । 
गोवर्धनधरो मत्स्यरूपः कारूण्यसागरः । 40 । 329

कुंभकर्णप्रभेत्ता च गोपीगोपालसंवृतः । 
मायावी व्यापको व्यापी रैणुकेयबलापहः । 41 । 335

पिनाकमथनो वंद्यः समर्थो गरूडध्वजः । 
लोकत्रयाश्रयो लोकचरितो भरताग्रजः । 42 । 342

श्रीधरः सद्गति लोकसाक्षीनारायणो बुधः । 
मनोवेगी मनोरूपी पूर्णः पुरूषपुंगवः । 43 । 351


यदुश्रेष्ठो यदुपति भूतावासः सुविक्रमः । 
तेजोधरो धराधार चतुर्मूर्ति महानिधिः । 44 । 359

चाणूरमर्दनो दिव्य शांतो भरतवंदितः ।
शब्दातीगो गभीरात्मा कोमलांगः प्रजागरः । 45 । 367

लोकगर्भ शेषशायी क्षीराब्धिनिलयो अमलः । 
आत्मयोनि अदीनात्मा सहस्राक्ष सहस्रपाद । 46 । 375

अर्मतांशु महागर्भो निवृत्तविषयस्पृहः ।
त्रिकालज्ञो मुनिसाक्षी विहायसगतिः कृती । 47 । 383

पर्जन्यः कुमुदो भूतावासः कमललोचनः । 
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासो वीरहा लक्ष्मणाग्रजः । 48 । 391

लोकाभिरामो लोकारिमर्दनः सेवकप्रियः । 
सनातनतमो मेघश्यामलो राक्षसान्तकृत । 49 । 397

दिव्यायुधधरः श्रीमान अप्रमेयो जितेन्द्रियः ।
भूदेववंद्यो जनकप्रियकृत प्रपितामहः । 50 । 404

उत्तमः सात्विकः  सत्यः सत्यसंध त्रिविक्रमः । 
सुव्रतः सुलभः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुधीः । 51 । 415

दामोदरो अच्युत शांगी वामनो मधुराधिपः ।
देवकीनंदनः शौरिः शुरः कैटभमर्दनः । 52 । 424

सप्ततालप्रभेत्ता च मित्रवंशप्रवर्धनः ।
कालस्वरूपी कालात्मा कालः कल्याणदः कविः । 53 । 431

संवत्सर ऋतु पक्षो अयनं दिवसो युगः ।
स्तव्यो विविक्तो निर्लेपः सर्वव्यापी निराकुल; ।
अनादिनिधनः सर्वलोकपूज्यो निरामय: । 54 ।  445

रसो रसज्ञः सारज्ञो लोकसारो रसात्मकः । 
सर्वदुःखातिगो विद्याराशिः परमगोचरः । 55 । 453

शेषो विशेषो विगतकल्मषो रघुनायकः ।  
वर्णश्रेष्ठो वर्ण्यबाह्यो वर्ण्यो वर्ण्यगुणोज्ज्वलः । 56 । 461

कर्मसाक्षी अमरश्रेष्ठ देवदेवः सुखप्रदः ।
देवाधिदेवो देवर्षि देवासुरनमस्कृतः । 57 । 468

सर्वदेवमयश्चक्री शारंगपाणी रघूत्तमः ।
मनो बुध्दि अहंकारः प्रकृति पुरूषो अव्ययः । 58 । 478

अहल्यापावनः स्वामी पितृभक्तो वरप्रदः ।
न्यायो न्यायी नयी श्रीमान् नयो नगधरो ध्रुवः । 59 । 489

लक्ष्मीविश्वंभरा भर्ता देवेन्द्रो बलिमर्दनः ।
बाणारिमर्दनो यज्वानुत्तमो मुनिसेवितः । 60 । 496

देवाग्रणी शिवध्यानतत्परः परम: परः । 
सामगेयो प्रियो अक्रुरः पुण्यकीर्ति सुलोचनः। 61 । 505

पुण्यः पुण्याधिकः पूर्वः पूर्णः पूरयिता रविः ।
जटिलः कल्मषध्वान्तप्रभंजनविभावसु ः । 62 । 513

अव्यक्तलक्षणो अव्यक्तो दशास्यद्वीपकेसरी ।
कलानिधिः कलानाथो कमलानंदवर्धनः । 63 । 519

जयी जितारिः सर्वादि शमनो भवभंजनः ।
अलंकरिष्णु अचलो रोचिष्णु विक्रमोत्तमः । 64 । 528

आशुः शब्दपतिः शब्दागोचरो रंजनो रघुः ।
निश्शब्दः प्रणवो माली स्थूलः सूक्ष्मो विलक्षणः । 65 । 539

आत्मयोनि अयोनिश्च सप्तजिव्हः सहस्रपात् । 
सनातनतम स्रग्वी पेशलो जविनांवरः । 66 । 547

शक्तिमत शंखभृत नाथ गदापद्मरथांगभृत् ।
निरीहो निर्विकल्पश्च चिद्रुपो वीतसाध्वसः । 67 । 555

शताननः सहस्राक्ष शतमूर्ति घनप्रभः ।
ह्रतपुण्डरिकशयनः कठिनो द्रव एव च । 68 । 562

उग्रो ग्रहपतिः श्रीमान् समर्थो अनर्थनाशनः ।
अधर्मशत्रू रक्षोघ्नः पुरूहुतः पुरुष्टुतः । 69 । 571

ब्रह्मगर्भो बृहत्गर्भो धर्मधेनु धनागमः ।
हिरण्यगर्भो ज्योतिषमान सुललाटः सुविक्रमः । 70 । 579

शिवपूजारतः श्रीमान् भवानीप्रियकृत वशी ।
नरो नारायणः श्यामः कपर्दी नीललोहितः । 71 । 588

रूद्रः पशुपतिः स्थाणु विश्वामित्रो द्विजेश्वरः । 
मातामहो मातरिश्वा विरिंचो विष्टश्रवा । 72 । 597

सर्वभुतानांक्षोभ्यः चण्डः सत्यपराक्रमः ।
 वालखिल्यो महाकल्पः कल्पवृक्षः कलाधरः । 73 । 604

निदाघ तपनो अमोघः श्लक्ष्णः परबलापह्रत । 
कबंधमथनो दिव्यः कम्बुग्रीवशिवप्रियः । 74 । 612

शंखो अनिलः सुनिष्पन्नः सुलभः शिशिरात्मकः ।
असंसृष्टो अतिथिः शूरः प्रमाथी पापनाशकृत् । 75 । 622

वसुश्रवाः कव्यवाहः प्रतप्तो विश्वभोजनः ।
रामो नीलोत्पलश्यामो ज्ञानस्कन्धो महाद्युतिः । 76 । 630

पवित्रपादः पापारि मणिपूरो नभोगतिः ।
उत्तारणो  दुष्कृति दुर्धर्षो दुस्सहो अभयः । 77 । 639

अमृतेशो अमृतवपु धर्मी धर्मः कृपाकर ः । 
भर्गो विवस्वान आदित्यो  योगाचार्यो दिवस्पतिः । 78 । 649

उदारकीर्ति उद्योगी वांड्मयः सदसन्मयः । 
नक्षत्रमाली नाकेशः स्वाधिष्ठानः षडाश्रयः । 79 । 657

चतुर्वर्गफलो वर्णी शक्तित्रयफलं निधिः ।
निधानगर्भो निर्व्याजो गिरीशो व्यालमर्दनः । 80 । 665

श्रीवल्लभः शिवारंभः शान्तिर्भद्रः समंजसः ।
भूशयो भूतिकृत भूति भूषणो भूतवाहनः । 81 । 675

अकायो भक्तकायस्थः कालज्ञानी महावटुः ।
परार्थवृत्ति अचलो  विविक्तः श्रुतिसागरः । 82 ।683

स्वभावभद्रो मध्यस्थः संसारभयनाशनः ।
वेद्यो वैद्यो वियद्गोप्ता सर्वामरमुनीश्वरः । 83 । 690

सुरेन्द्रः करणं कर्म कर्मकृत कर्म्यधोक्षजः ।
ध्येयो धुर्योधराधीशः संकल्पः शर्वरीपतिः । 84 । 701


परमार्थ गुरू वृध्दः शुचिराश्रितवत्सलः । 
विष्णु जिष्णु विभु वन्द्यो यज्ञेशो यज्ञपालकः । 85 । 711

प्रभविष्णु  ग्रसिष्णुश्च लोकात्मा लोकभावनः ।
केशवः केशिहा काव्यः कविः कारणकारणम् । 86 । 720 

कालकर्ता कालशेषो  वासुदेवः पुरूष्टुतः । 
आदिकर्ता वराहश्च माधवो मधुसूदनः । 87 । 728

नारायणो नरो हंसो विष्वक्सेनो जनार्दनः । 
विश्वकर्ता महायज्ञो ज्योतिष्मान पुरूषोत्तमः । 88 । 737

वैकुण्ठः पुण्डरीकाक्षः कृष्णः सूर्यः सुरार्चितः ।
नारसिंहो महाभिमो वक्रदंष्ट्रो नखायुधः । 89 । 746

आदिदेवे जगत्कर्ता योगीशो गरूडध्वजः ।
गोविन्दो गोपति गोप्ता भुपति भुवनेश्वरः । 90 । 755

पद्मनाभो ह्रषीकेशो धाता दामोदर प्रभुः ।
त्रिविक्रम त्रिलोकेशो ब्रह्मेशः प्रीतिवर्धनः । 91 । 764

वामनो दुष्टदमनो गोविंदो गोपवल्लभः । 
भक्तिप्रियो अच्युतः सत्यः सत्यकीर्तिः स्मृति ः । 92 । 773

कारूण्यं करूणोव्यासः पापहा शान्तिवर्धनः ।
संन्यासि शास्त्र तत्वज्ञो मंदाद्रिनिकेतना । 93 ।782

बदरीनिलयः शांत तपस्वी वैद्युत्प्रभः । 
भुतावासो गुहावासः श्रीनिवासः श्रियः पतिः । 94 । 790

तपोवासो मुदावासः सत्यवासः सनातनः ।
पुरूषः पुष्करः पुण्यः पुष्कराक्षो महेश्वरः । 95 ।  799

पूर्णमूर्तिः पुराणज्ञः पुण्यदः प्रीतिवर्धनः ।
शंखी चक्री गदी शांर्गी लांगली मुसली हली । 96 ।  810

किरीटी कुण्डली हारी मेखली कवची ध्वजी |
योध्दा जेता महावीर्यः शत्रुजित शत्रुतापनः । 97 । 821

शास्ता शास्त्रकरः शास्त्रं शंकरः शंकरस्तुतः ।
सारथि सात्विकः स्वामी सामवेदप्रियः समः । 98 । 830

पवनः संहतः शक्तिः संपूर्णांगः समृध्दीमान । 
स्वर्गदः कामदः श्रीदः कीर्तिदो अकीर्तिनाशनः । 99 । 841

मोक्षदः पुण्डरीकाक्षः क्षीराब्धिकृतकेतनः । 
सर्वात्मा सर्वलोकेशः प्रेरकः पापनाशनः । 100 । 848

सर्वव्यापी जगन्नाथः सर्वलोकमहेश्वरः ।
सर्गस्थित्यन्तकृत देवः सर्वलोकसुखावहः । 101 । 854

अक्षय्यः शाश्वतो अनन्तः क्षयवृध्दीविवर्जितः ।
 निर्लेपो निर्गुणः सूक्ष्मो निर्विकारो निरंजनः । 102 । 863

सर्वोपाधिनिनिर्मुक्तः सत्तामात्रव्यवस्थितः ।
अधिकारि विभुनित्यः परमात्मा सनातनः । 103 । 870

अचलो निर्मलो व्यापी नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
श्यामो युवा लोहिताक्षो दीप्तास्य मितभाषणः । 104 । 880

आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाभुजः ।
सत्यवान गुणसंपन्नः स्वयंतेजाः सुदीप्तिमान् । 105 । 888

कालात्मा भगवान कालः कालचक्रप्रवर्तक ः ।
नारायणः परंज्योतिः परामत्मा सनातनः । 106 । 896

विश्वसृड विश्वगोप्ता विश्वभोक्ता शाश्वतः ।
विश्वेश्वरो विश्वमूर्ति विश्वात्मा विश्वभावनः । 107 । 904

सर्वभुत सुह्रद शांत सर्वभूतानुकंपनः ।
सर्वेश्वरेश्वरः  सर्वः श्रीमान  आश्रितवत्सलः । 108 । 911

सर्वगः सर्वभूतेशः सर्वभूताशयस्थितः । 
अभ्यन्तरस्थ तमस्च्छेत्ता नारायणः परः । 109 । 918

अनादिनिधनः स्रष्टा प्रजापतिपति हरिः । 
नरसिंहः ह्रषीकेशः सर्वात्मा सर्वदृग वशी । 110 । 927

जगस्तस्थुष श्चैव प्रभु नेता सनातनः ।
कर्ता धाता विधाता  सर्वेषां प्रभु ईश्वरः । 111 । 936

सहस्रमूर्ति विश्वात्मा  विष्णु विश्व दृगव्ययः । 
पुराणपुरूषः स्रष्टा सहस्राक्ष सहस्रपाद । 112 । 945

तत्वं नारायणो विष्णु वासुदेवः सनातनः ।
परमात्मा परं ब्रह्म सच्चिदानंदविग्रहः । 113 । 953

परं ज्योति परं धामं पारकाशः परात्परः । 
अच्युतः पुरूषः कृष्णः शाश्वतः शिवः ईश्वरः । 114 । 963

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरूग्रः साक्षी प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भः सविता लोककृत लोकभृत विभूः । 115 । 974

रामः श्रीमान महाविष्णु जिष्णु देवहितावहः ।
 तत्वात्मा  तारकं ब्रह्म  शाश्वतः सर्वसिध्दिदः। 116 । 984

अकारवाच्यो भगवान श्री भूलीलापतिः पुमान् ।
सर्वलोकेश्वरः श्रीमान् सर्वज्ञः सर्वतोमुखः । 117 । 993

स्वामी सुशीलः सुलभः सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् ।
नित्यः संपूर्णकामश्च नैसर्गिकसुह्रद सुखीः । 118 । 1002

कृपापीयूषजलधि शरण्यःसर्वदेहिनाम् । 
श्रीमान  नारायणः स्वामी जगतांपति  ईश्वरः । 119 । 1009

श्रीशः शरण्यो भूतानां  संश्रिताभीष्टदायकः । 
अनंतः श्रीपती रामो गुणभृत निर्गुण महान् । 120 । 1018


इति श्री आनंद रामायणे श्रीराम सहस्रनाम स्तोत्रं संपूर्णम् ।
ॐ श्री भगावन श्री रामचन्द्रार्पणमस्तु । 

ॐ श्री कृष्णार्पणमस्तु । ॐ तत् सत् ॐ श्री आई सुशीला ॐ तत् सत् चरणार्पणमस्तु ।

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http://maiism.blogspot.in/2016/01/names-1-to-500-of-ten-thousands-names.html

http://universalreligionmaiism.blogspot.in/